विकारों पर चर्चा

काम: 

काम विकार को जीतने और जीवन को पवित्र बनाने के लिए मनुष्य को अपनी असल और नसल को याद रखना चाहिए ।  असल का अर्थ है हम वास्त्व मैं ज्योति-बिंदु स्वरूप आत्मा हैं । यह पाँच तत्वों से बना शरीर मुझसे भिन्न है। मैं तो परम पिता परमात्मा की संतान हूँ और उसकी संतान होने के कारण सभी नर और नारी रूपी तन मेरे भाई बहन ही हैं । ऐसा भाव मन में रखने से मनुष्य की दृष्टि,  वृति और स्थिति बदल जाती है और  संस्कार बदलने शुरू हो जाते हैं । 

नसल के विचार से मनुष्य को यह समझना चाहिए की मैं श्री लक्ष्मी-श्री नारायण अथवा सीता श्री राम आदि देवताओं का वंशज होने के कारण जैसे देवी-देवता पवित्र रहते थे, मुझे भी पवित्र रहना चहिये । कहा भी गया है ब्रह्मचर्येण देव मृत्युं अपघनात अर्थात ब्रह्मचर्य के बल से देवताओं ने मृत्यु को भी जीत लिया था ।  

क्रोध: 
क्रोध मनुष्य को अनेक रूपों में सताता है। उद्वेग, द्वेष ,ईर्ष्या , बदले की भावना,हिंसा, वैर विरोध की भावना आदि सभी क्रोध के विभिन्न रूप हैं । क्रोध का एक मूल कारण यह है की माणुस्या दूसरे की गलती या भूल देखकर उसे बर्दाश्त  नहीं करता । वास्तव में मनुष्य  को दूसरों की कमियों या अवगुणों को देखकर क्रोध नहीं करना चाहिए बल्कि अपने क्रोध  की और ध्यान देना चहिये । यदि कोई मनुष्य भूल करता है अथवा किसी बात को नहीं समझता और उसे नहीं मानता तथा विरोध करता है तो प्रेम 
अथवा सदभावना से उसमें परिवर्तन लाना चाहिए ।  युक्ति से और तर्क से उसे समझने का प्रयत्न कर्मा चाहिए,क्योंकि इससे ही अपना आत्मिक बल बढ़ता है । शांति के खजाने में वृधि होती है और दूसरा व्यक्ति भी सुधरता है।  

जब दूसरे लोग मनुष्य के विचारों से सहमत नहीं होते तो मनुष्य क्रोध के वस में आ जाता हैं । मतभेद होने पर मनुष्य को सोचना चाहिए कि वर्तमान कलयुगी सृष्टि से मत मतान्त्रों का वृक्ष तो खूब वृधि पा चुका है ।  भिन्नता / विविधता तो इस सृष्टि  का नियम है,जैसे एक ही वृक्ष की शाखा के दो पत्ते भी एक जैसे नहीं होते,अतः दो मनुष्यों के कर्म भी एक जैसे नहीं हो सकते. हमें यह सोचना चाहिए कि सतयुग में शेर और बकरी एक ही घाट मैं पानी पीते थे, क्या हम एक परमात्मा की संतान होने के नाते  आपस में प्रेम से नहीं रह सकते?

काई बार दूसरों के अनुचित व्यवहार को देख कर भी मनुष्य को क्रोध आ जाता है। यदि कोई अनुचित व्यवहार करता है तो हमें यह सोचना चाहिए की यह मेरे कर्मों के हिसाब-किताब के कारण है् । हमें  यह सोचना चाहिए की हमने ही कभी खोटा  कर्म ना किया होता तो हमसे खोटा  बोल कोई बोल ना सकता ।  शांत रहने से ही दूसरों पर अच्छा प्रभाव पद सकता है वरना क्रोध की अग्नि 
नहीं बुझेगी ही ।  

मनुष्य को सोचना चाहिए कि आत्मा का तो मूल धर्म ही पवित्रता और शांति है। क्रोध तो तेरा मौलिक स्वभाव और स्वरूप ही नहीं है। शांत रहने वाला दूसरों को भी शांति देता है,अतः मैं तो शांति पूर्वक  ही कार्य करूंगा । यह ध्यान रखना चाहिए की परम पिता के आदेशों में  तो हल्का क्रोध भी अपराध है। वास्तव में क्रोध के बाद अशांति रूपी फल का अनुभव तो उसी खानक्षण मिल  जाता है। क्रोध तोड़ा हो या बहुत, वह अपने लिए तो हर हालत में हानिकारक है । मनुष्य को क्रोधहीन , शीतल, मधुर और शांत स्वभाव का बनना चाहिए।

लोभ : 
लोभी व्यक्ति सदा अतृप्त और असंतुष्ट  रहता है। वह हर वक्त कमी महसूस करता है और अधिक से अधिक प्राप्त करने की दौड़ में लगा रहता है। जो हर समय कमी महसूस करे उसे सच्चा सुखी मानना ही भूल है। लोभी मनुष्य में ईर्ष्या और द्वेष भी बहुत होते हैं. लोभ छोड़ने का भाव यह नही है की धन नहीं कमाना चाहिए।  धन तो एक आवश्यक चीज है,परंतु भाव यह है की धन का लोभ बुरी चीज है ।  लोभ को ड़ने से ही संतोष, त्याग-वृति, अनासक्ति, सेवा भाव, आत्मिक दृष्टि जैसे दिव्य गुण आ सकते हैं । 
  अहंकार : 
स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं । अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता।


मोह : 

संसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति ही मोह है। हह प्रेम से भिन्न है ।

सबसे पहला विकार मोह है बाकि सभी विकार मोह के पश्चात उत्पन्न होते हैं अर्थात कहा जाए तो सभी विकार मोह के कारण ही उत्पन्न होते हैं । मोह सभी विकारों की जड़ है ।

मोह इन्सान के जीवन की स्वभाविक प्रक्रिया है परन्तु इसका असंतुलित होना अत्यंत हानिकारक होता है संतुलन में होने से अधिक प्रभाव नहीं होता । मोह ऐसा विकार है जिसकी अधिकता इन्सान के जीवन को संघर्ष पूर्ण एंव कष्टकारी बनाती है अर्थत जितना अधिक मोह होगा उतना अधिक कष्टदायक जीवन हो जाता है क्योंकि मोह के मद में इन्सान का विवेक कार्य नहीं करता और वह अपने मन एवं भावनाओं का गुलाम बन कर रह जाता है । जन्म के बाद सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के प्रति मोह उत्पन्न होता है तथा भोजन की वस्तुओं के मोह का आगमन भी होने लगता है फिर खेलों के सामान का मोह भी आरम्भ हो जाता है ।

जिनमे खाने या खेलने के प्रति अधिक मोह होता है उनकी शिक्षा को ग्रहण लग जाता है क्योंकि खाने या खेलने में फंसा मन शिक्षा की तरफ ध्यान देने से मना करता है , खाने का मोह शरीर में वसा की मात्रा बढ़ा कर शरीर को आलसी बना देता है जिसके कारण शिक्षा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । जो खेलों के मोह में फंस जाते हैं उनकी बुद्धि और शरीर की थकावट के कारण वे शिक्षा से दूर हो जाते हैं । खाने और खेलों के मोह वाले इन्सान शिक्षा को बोझ समझकर उसे प्राप्त तो कर लेते हैं परन्तु अपने विषयों में विशेषता प्राप्त करना उनके वश का कार्य नहीं होता । परिवार के सदस्यों का मोह होना स्वभाविक है परन्तु मोह की अधिकता होने पर परिवार के दूसरे सदस्य उसका लाभ प्राप्त कर उसे इस्तेमाल करते हैं तथा कभी कभी तो उसके सभी हक एंव विरासत को हडप जाते हैं ।

इन्सान किसी बाहरी इन्सान के मोह में फंस जाए तो उसके दो प्रकार होते हैं कोई मित्र बन कर मोहित करता है तथा कोई शरीरिक आकर्षण अर्थात भिन्न लिंगी के चक्रव्यूह में फंस जाता है । मित्रता कोई बुरा विषय नहीं है क्योंकि जीवन में यदि सच्चा मित्र प्राप्त हो जाए तो जीवन व्यतीत करने में सरलता हो जाती है यदि कोई बुरा इन्सान मित्र के रूप में प्राप्त हो जाए तो वह कोई भयंकर नुकसान कर सकता है । मित्र का मोह संतुलित होगा तो वह अच्छा या बुरा हो अधिक नुकसान नहीं कर सकता परन्तु मोह की अधिकता में बुरा मित्र धन, इज्जत व जीवन तक कुछ भी लूट सकता है ।

शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम तो अधिक भयंकर होता है क्योंकि काम वासना की कामाग्नि इन्सान की बुद्धि और विवेक को खा जाती है तथा रह जाता है सिर्फ मन जो अपने प्रिय के मोह में जान देने को तैयार रहता है । शरीरिक आकर्षण में फंसा इन्सान अपने जीवन का कोई भी गलत से गलत फैसला ले सकता है इसलिए इन्सान को किसी के मोह में फंसकर अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करना नहीं छोड़ना चाहिए । मोह के अनेक रूप हैं जैसे धन का मोह, किसी भौतिक वस्तु का मोह, किसी वाहन का मोह, किसी जानवर का मोह वगैरह कोई भी मोह हो जीवन में दुःख अवश्य देगा क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु व जीव सभी का समाप्त होना तय है । जिस से मोह हो जाए उसका विछोह इन्सान के दुखों का कारण बनता है ।

मोह से इन्सान के मन में भय उत्पन्न होता है क्योंकि जिससे मोह हो जाए उसके साथ किसी दुर्घटना की आशंका इन्सान को भयभीत करती है । यदि किसी इन्सान से मोह की अधिकता हो तो उसके द्वारा की गई गलतियों को नजर अंदाज करके स्वयं को मुसीबत में फंसाना यह इंसानी आदत है क्योंकि गलती करने पर समझाया न जाए या दंड न दिया जाए तो गलती करने की आदत में वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम अपराधिकता को बढ़ावा देना है तथा अपराधी का मोह मुसीबत का कारण ही बनता है । जीवन में मोह को समाप्त नहीं किया जा सकता परन्तु समझदार इन्सान मोह होने पर भी सदा अपने विवेक द्वारा ही सभी प्रकार के फैसले लेते है जिसके कारण मोह उनके जीवन का कलंक नहीं बनता ।